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कविता

गया साल

संजीव ठाकुर


अभी-अभी गया है एक साल
दुखों का बोझ लेकर
अनेक घोटालों का साक्षी बनकर
लाखों भ्रष्टाचारियों को झेलकर
करोड़ों लोगों को कराहते छोड़कर
हजारों स्त्रियों के बलात्कार का कलंक
अपने सिर लेकर।
लोग कर रहे हैं आतिशबाजी
नए साल के स्वागत में
गोते लगा रहे हैं
पब के प्रांगण में !

शुरू हो जाएगी सुबह से
एक और साल के
अपमानित होने की प्रक्रिया
तीन सौ पैंसठ दिनों बाद
जा रहा होगा
एक और बूढ़ा साल
अपने कूबड़ में
दुनिया का कबाड़ छुपाए
ठीक इसी समय !
 


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